About Me

Wednesday, June 24, 2009

नाज़ हो तुम मेरा

जब जब मुझे धूप ने है सताया
तुम बने मेरे रहगुजर मेरा साया।
वैसे तो तुम ही इस तरह हो लिपटे
दिल के करीब बन कर मेरा हमसाया।

धूल मिटटी में जो मैं कभी बाहर चली भी जाती
तो तुम मेरे सर से मेरे चेहरे तक मुझे यूँ है ढकते।
की कब सुबहे से दोपहर हुई और कब घर से निकले
हुई शाम कब दिन गया गायब तुम संग ढलते ढलते।

कहीं जो मुझे कभी कोई दूर खड़ा यूँही एकटक निहार कर
मुझे मेरे बचपन को भूल कर नई नई जवानी की याद है कराता।
न जाने कब हवा है चलने लगती और तुम अटखेलिया करते
जैसे तुमको मेरे दिल में चल रही हलचल का है पता चल जाता।

कभी हो तुम पीले कभी नीले तो कभी हो लाल
मेरे रंग रूप का तुमको है सदा ख्याल।
कभी जो भूली मैं घर पर अपना रुमाल
तुमने ही साथ दिया हमेशा साफ़ रखे मेरे गाल।

तुमको कोई मेरी लाज है कहता
कोई बताता तुम्हे मेरा नखरा।
पर सिर्फ़ तुम और मैं ही जानते है की
तुम सिर्फ़ मेरा दुपट्टा नही नाज़ हो तुम मेरा।

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