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Saturday, September 6, 2008

घटना--जिसमें मुझे घबराना चाहिए था पर मैं नहीं घबराई..

यह बात 1990 की sept के किसी दिन की है। मेरे मम्मी-पापा किसी काम से बाहर गए हुए थे। मैं घर के बाहर ही अपने दोस्तों के साथ खेल रही थी। मैंने अपने दोस्तों से दौड़ लगाने को कहा। सब मान गए। फिर एक जगह से शुरू करते हुए कई गलियों से निकल कर बड़ी सड़क के उस ओर जा कर वापस आना था। यह हमारी दौड़ का रास्ता था। मगर मेरी एक सहेली बोली यह तो बहुत दूर है। फिर सबके कहने पर वो मान गई.

दौड़ शुरू हुई। मैं दौड़ते दौड़ते बहुत आगे निकल आई। मैं बड़ी सड़क तक पहुच गई मगर वहाँ दोपहर के समय पर कम भीड़ होती है। मैंने आराम से सड़क पार कर ली। जब मैं वापस सड़क पार करके आई तो मैं अपना रास्ता भटक गई। मुझे अपनी गली का पता ही नहीं चला और दूसरी गली में चली गई। आगे रास्ता न मिलने पर मैं गबरा गई। फिर एक आदमी मुझे मिला उसने मुझसे कहा कि वो मुझे मेरे घर तक पहूचा देगा। उसने मुझे मेरे और मेरे पापा के बारे पुछा। मैंने घर का पता बता दिया। जिस से वो मुझे घर पँहुचा सके। जैसे ही उसने सड़क पार की उसने मेरा मुह एक कपड़े से जोर से बंद कर दिया। मैं कुछ समझ नहीं पा रही थी कि वो क्या कर रहा है। उसने कपड़े के उपर एक और कपड़े से उसे बंद दिया। मैंने बहुत कोशिश की उसके हाथो से निकल जाऊं मगर उसने मुझे बहुत कस के पकड़ा हुआ था। फिर उसने मुझे एक गाड़ी में बिठा दिया। गाड़ी चलने लगी। उस गाड़ी में एक और आदमी भी था जो गाड़ी चला रहा था। करीब एक घंटे बाद गाड़ी एक जगह रुकी। वो जगह बड़ी सुनसान सी थी।

फिर उस आदमी ने मुझे कई गलियों से निकालते हुए एक मकान में ला कर बंद कर दिया। थोडी देर बाद वो आया उसने मेरे मुह से कपड़ा हटाया और बोला " चीखना चिलाना नहीं। यहाँ कोई नहीं सुनेगा मकान बिल्कुल खाली है। तुमको भूख लगी होंगी। लो परांठे लाया हूँ। खा लो। मैंने कई घटनाएं सुनी थी जिसमें बच्चो को उठा कर ले जाते थे और फिर घर वालो से पैसो की मांग करते थे। जिसको पूरा न करने पर कई बच्चो को मार भी डाला था कई घटनाओ में। लेकिन कुछ घटनाओ में बच्चो ने अपनी सुझबुझ से ऐसे लोगो को चकमा दिया था और बच निकले थे। मैं समझ गई थी यह वैसे ही लोग हैं। मैं यह भी जानती थी मेरे मम्मी-पापा मुझे बहुत प्यार करते हैं मगर उनके पास इतने पैसे न हुए जितने यह लोग मांग करेंगे तो पापा पुलिस की मदत भी ले सकते है। मगर मुझे भी समझदारी से काम लेना होगा। मैं यहाँ से निकलने की तरकीबे सोचने लगी।

वो मुझे परांठे दे के जा चुका था। मैंने दरवाजा खोलने की खूब कोशिश की पर सब नाकामयाब थी। वो दरवाजा बहुत मजबूत था और उसने बाहर ताला लगा दिया था। मैं और कोई तरकीब सोचने लगी। बस एक मौका चाहिए था मुझे जो कि मुझे जल्द ही मिलने वाला था।

रात को करीब 7-8 बजे वो आदमी फिर खाना ले कर आया। मैंने देखा उसने दरवाजे से ताला और उसमें लटकी चाबी वहीँ दरवाजे पे ही छोड़ दी है। मुझे लगा यही अच्छा मौका है। मैं पेट को ज़ोर से पकड़ कर जोर से चिलाई "आआअ...... आहह....... मेरा पेट.....दर्द हो रहा है.....उफ़...आआहह्ह" वो गबरा गया था जैसा कि मैंने सोचा था। उसके हाथ में खाने की प्लेट थी। वो मेरी ओर बढने लगा। उसके कुछ कहने से पहले ही मैंने सोच लिया था की क्या करना है। जैसे ही वो मेरे करीब आया मैंने उसके हाथ की प्लेट पे ज़ोर से धक्का दिया और प्लेट उसके मुहँ पे जा लगी। वो बोखला गया था। मैं जल्दी से मकान से बाहर निकल गई और जल्दी से दरवाजा बंद करके ताला लगा दिया। मगर वो अंदर से दरवाजा हिला रहा था। तो चाबी मेरे हाथ से वहीँ गिर गई। मैंने इधर उधर देखा। समझ नहीं आ रहा था कि किधर जाऊं। फिर मैंने देखा सड़क गिली थी। शायद अभी अभी ज़ोर से बारिश हुई थी जिसकी वजह से सड़क बिल्कुल साफ़ थी। बस कुछ पेरों के निशान थे जो गिली मिटटी से बने हुए थे। मैं बस उस ओर चल दी। बहुत सी गलियों में घूमने लगी। वो जगह सच में सुनसान थी। शायद यहाँ कारखाने थे। कोई रहता नही था क्योंकि मैंने मकान में मशीनों के चलने की आवाजें सुनी थी। बहुत इधर उधर घूमने के बाद मुझे एक जगह दूर वो गाड़ी दिखाई दी। मैं एक जगह छुप गई। उस गाड़ी के पास वो दूसरा आदमी घूम रहा था। मैंने मौका देख कर वहाँ से भागने का सोचा। सो मैं वहीँ छुपी रही ताकि वो मुझे ना देख सके। मेरा दिल पकडे जाने के डर से जोरो से धड़क रहा था

बहुत देर बाद वो आदमी कुछ परेशान सा हो गया और गाड़ी के अंदर बैठ गया। मैंने यह मौका ठीक समझा और नीचे झुकते हुए गाड़ी के पीछे तक चली गई। फिर 15 मिनट के बाद वो गाड़ी से निकल कर कुछ बडबडाता हुआ गली के अंदर चला गया। मैंने ज़ोर से चेन की साँस ली। इधर उधर देखा। मगर कुछ समझ नहीं आ रहा था। जैसा कि वो जगह मेरे लिए अनजान थी और वो जगह सुनसान होने क कारण मुझे काफ़ी डरा चुकी थी। फिर अचानक गली के अंदर से आवाज़ आयी। "वो भाग कैसे गई। तुमसे एक छोटी सी लड़की नहीं संभाली गई।"

मैं समझ गई वो दोनों यहीं आ रहे है। मैं थोड़ा और गबरा गई थी। मैं फिर झुक गई। फिर मैंने देखा गाड़ी की डिक्की खुली हुई थी। मैं चुपके से उसके अंदर बैठ गई। वहाँ अंदर डिक्की में बहुत अँधेरा था। मगर मुझे उन दोनों की आवाजे सुनाई दे रही थी। "मैंने तुमको सिर्फ़ खाना दे कर आने को कहा था..अब वो अंदर गलियों में भी नहीं मिली।" दूसरा आदमी बोला "...और अब यहाँ बाहर भी नहीं है। पता नहीं कहाँ तक चली गई होगी।" फिर दुसरे ने झट से बोखला के बोला "मगर मैं तो तब से यहीं खड़ा हूँ। मुझे तो वो यहाँ से बाहर आती नही दिखाई दी। यह सब तुम्हारी बेवकूफ़ी की वजह से हुआ है। तुमने ताला चाबी वहाँ ऐसे ही छोड़ दी, अब बॉस को क्या बोलेंगे।"

10-15 मिनट तक वो लोग वही मुझे ढूँढ़ते रहे। तभी एक ने कहा "कहीं वो वहीँ तो नहीं चली गई जहाँ से हमने उसे उठाया था। हो सकता है वो किसी और रास्ते से गलियों से निकल गई हो और उसको रास्ता पता हो। चलो वहीँ जा कर ढूढ़ते है।"...और वो गाड़ी में बैठ गए। गाड़ी चलने लगी। गाड़ी के रुकते ही एक आदमी ने कहा "तुम यहीं खड़े रहो मैं उसके घर के आस पास देख कर आता हूँ।" तब दुसरे ने कहा की "मैं बॉस को फ़ोन कर देता हूँ।"

जब थोडी देर तक उन दोनों की कोई आवाज़ नहीं आयी तो मैंने डिक्की खोली और देखा यह तो वही बड़ी सड़क थी जहाँ से मुझे उठाया गया था। मैं डिक्की से बाहर आयी और देखा एक दूकान में उन दोनों में से एक आदमी फ़ोन पे बात कर रहा था। मैं नीचे झुक गई ताकि उसे नज़र न आऊँ। इधर उधर देखा फिर एक दूकान में बहुत भीड़ देखी। सोचा अच्छी जगह है छुपने के लिए। मौका देख कर उस दूकान में चली गई। भीड़ के अंदर चली गई। फिर एक आवाज़ आयी "भईया ज़रा दो किलो चीनी देना।" मैंने देखा की जहाँ से आवाज़ आ रही थी। वहीँ एक आदमी खड़ा था जिसको जल्दी से पहचान गई थी। वो मेरे पड़ोस में ही रहते थे। उनका नाम मनोज था। मैं उनको आवाज़ देना चाहती थी मगर उस अप्रहनकर्ता के डर के कारण आवाज़ नहीं निकल पायी। वहीँ छुपी रही। मनोज अंकल बार बार दूकानदार से चीनी मांग रहे थे। मगर भीड़ होने के कारण दुकानदार उनको सुन नहीं रहा था। मुझे लगा कहीं मनोज अंकल चले न जाए।

फिर मैंने हिम्मत कर बाहर देखा तो वो दोनों आदमी जल्दी से गाड़ी में बैठ कर चले गए। तब जान में जान आयी और मैं दूकान के बाहर आ कर मनोज अंकल के करीब आ गई। वो मुझे देखते ही बोले.."अरे तुम यहाँ हो। तुम्हारे घर में तो सब तुमको लेकर बहुत परेशान है। पुलिस वाले भी तुमको ढूंढ रहे है। तुम्हारे
मम्मी-पापा का तो रो रो कर बुरा हाल है। चलो तुमको तुम्हारे घर छोड़ दूँ। वैसे तुम कहाँ चली गई थी।"

रास्ते में मैंने उनको सब रोते रोते बताया। घर पहुचते ही मम्मी-पापा मुझे देख कर मुझसे लिपट गए। बार बार रो रो कर मुझे गले लगा रहे थे और बीच बीच में मुझे प्यार भी कर रहे थे। मुझे पाकर घर वाले सब बहुत खुश थे और एक साथ इतने सवाल पूछ रहे थे। मैं बहुत कोशिश कर रही थी जवाब देने का, मगर उनके सवाल ख़त्म ही नहीं हो रहे थे। साथ ही साथ बार बार भगवान् और मनोज अंकल को धन्यवाद दे रहे थे। फिर मुझे पता चला की उन अप्रहंकर्ताओ घर के बाहर एक चिट्टी रख दी थी जिसमें उन्होंने 5 लाख की मांग की थी। मम्मी तो यह सब सुन कर बेहोश ही हो गई थी।

पापा ने भी मनोज अंकल को शुक्रिया कहा। मम्मी ने भगवान् को उनकी इस असीम कृपा के लिए शुक्रिया कहा। सब मेरी आप-बीती सुन ने लगे। बार बार अचम्भे से मुझे निहारने लगे और मेरी बहादुरी और समझदारी पर मुझे शाबाशी देने लगे। फिर पापा पुलिस को साथ ले कर आए और बोला "बेटे सब कुछ पुलिस अंकल को बताओ"..पुलिस अंकल ने मुझसे काफ़ी सवाल पूछे। पुलिस अंकल ने मुझे बताया की मैं अपने पापा की तरह समझदार और बहादुर हूँ। पुलिस अंकल ने बताया की आजकल इस इलाके में ऐसी बहुत सी घटनाएं हो चुकी है। मगर हर बार घर वाले डर की वजह से पुलिस को नहीं बुलाते थे। मगर पापा ने पुलिस को बता कर बहुत समझदारी दिखायी है। रात के खाने के बाद पुलिस वाले अंकल दो लोगो को साथ ले कर आए थे जिनको मुझे उन अप्रहंकर्ताओ का हुलिया बयां करना था। थोडी देर में मेरे बताते ही उन्होने तो तस्वीर बना दी। जो कुछ कुछ उन दोनों अप्रहंकर्ताओ से मिलती थी। पुलिस अंकल को मने यह भी बताया की उनका एक बॉस भी है और वो लोग मुझे एक ऐसी जगह ले गए थे जहाँ मशीन चलने की आवाजे आ रही थी।

करीब एक हफ्ते और चार दिनों बाद पुलिस वालो ने बताया की वो लोग यहाँ शहर से दूर किसी दूसरे शहर में पकड़े गए है। बस अब उनसे उनके बॉस के बारे पूछताश हो रही है। मैं अपने दोस्तों,स्कूल,आस-पड़ोस और घर में सबके बीच बहुत मशहूर हो गई थी। हर कोई मुझे समझदार और बहादुर लड़की बता रहा था मगर मैं तो उन अप्रहंकर्ताओ के पकड़े जाने पर और घर वालो इतना प्यार पाकर बहुत खुश थी।

so hows it??
criticism also invited here..:-)

Note : This story is only a Fiction, not real story, It is only for inspirational.

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